फैशन बिहाइंड द आयरन कर्टन
सुनने में अजीब लगेगा, लेकिन USSR में फैशनेबल लोगों को हिकारत की नज़र से देखा जाता है। सोवियत यूनियन के अधिकारियों का मानना था कि सोवियत महिलाओं को हमेशा खेतों में और घर में काम करने को तैयार रहना चाहिए और शायद इसलिए उन्हें फैशनेबल कपड़ों और मेकअप की ज़रूरत नहीं है। यही वजह थी की उस वक्त की महिलाएं, बेरंग और खराब डिज़ाइन वाले कपड़े पहना करती थीं।
लेकिन अधिकारियों की ये दकियानूसी बातें और कानून भी, फैशन के दीवानों का रास्ता रोका नहीं पाईं। 1960 के दशक में लेका मिरोनोवा रूस की पहली सुपरमॉडल बनीं। लेकिन उस वक्त उन्हें लोहे के पर्दे के पीछे रखा गया। उन्हें अमेरिका और यूरोप से काम के कई ऑफर आए, लेकिन उन्हें ना सिर्फ विदेश जाने से रोका गया बल्कि उनके हक का पैसा भी उन्हें नहीं मिला। उनकी तस्वीरों को बिना इजाज़त और मुआवज़े के कई जगहों पर इस्तेमाल किया गया।
लेकिन लेका के हुनर को पहचानने वाले उस दौर में भी मौजूद थे। सोवियत डिज़ाइनर स्लावा ज़ाइत्सेव ने जब लेका को देखा, तो उन्हें तुरंत साइन कर लिया। हालांकि स्लावा को भी सोवियत अधिकारियों से कई बार दो-चार होना पड़ा। उनके डिज़ाइन उस दौर में कभी फैक्ट्री तक नहीं पहुंचे। लेकिन लेका और स्लावा ने हिम्मत नहीं हारी और अपने दिल में लगी फैशन की आग को हवा देते रहे।
सोवियत दौर में विदेशी सामान का मिलना लगभग नामुमकिन था। यही वजह थी कि उस वक्त रूस में कालाबाज़ारी ने ज़ोर पकड़ा। मेडिसिन की पढ़ाई करने वाले अलेक्सांद्र मुर्ज़ोव ने उस वक्त विदेशी जींस बेच कर काफी पैसा कमाया। “हम यूनिवर्सिटी के आसपास प्रमुख स्थानों पर अपना माल खरीदते-बेचते थे। यूनिवर्सिटी में नहीं, पर छात्रावासों में जहां विदेशी छात्र रहते थे।” – अलेक्सांद्र बताते हैं। लेकिन आज हालात अलग हैं।
हमारी इस फिल्म में आप मिलेंगे सोवियत ज़माने के एक फैशन संरक्षक, फैशन इतिहासकार अलेक्सांद्र वालिसिएव से। जिन्हें फैशन के अपने जुनून को बचाए रखने के लिए, रूस छोड़ना पड़ा। उनके पास कई सोवियत सितारों, रईसों और उनके वारिसों के कपड़े आज भी सुरक्षित हैं। उनके कलेक्शन का नाम भी खास है – “फैशन बिहाइंड द आयरन कर्टन”।